स्मृतियों का घना जंगल
भ्रमित सदैव हर पल,
ठोकर खाया तुमने सहलाया
आँसुओं को हथेलियों पे रोका
हे पिता! बाहे तेरी मेरा सिराहना
तेरी गोद में पला बचपन
छाया में तेरी आया यौवन,
हाय! मैं क्यूँ हुई पराई?
सुख-दःुख सारे बटं गए
पिता तुम हम भी
अपनी-अपनी देहरी से
बंध गए
मन मेरा रहा सदा तुम्हारी देहरी
तले
सुख! जीवन में तब था
तुम थे तब जग था
सूना मन खुली हथेली से
फिसला जाता है
घुप अंधेरी कूप सी जिन्दगी
प्रतिध्वनित आवाजें डराती हैं
अब आते नहीं क्यूँ?
पुचकारते नहीं क्यूँ?
आँखें भी रोते-रोते थक जाती हैं
***
***
Really beautiful poetry! Fathers are so special!
ReplyDelete