आमने सामने खड़े, युगों से
पाषाण हो तुम
मैं बर्फ की बनी
सर्पीली नदी सी पिघलने सा लगे है कुछ,'
अनचाहे ही चले आए
किसने न्यौता था?
और आते ही स्वनिर्मित
पाषाणी वजूद में समा गए हो
मैं सिर पटक पटक कर
रूप बदल बदल कर,
थक कर, हार कर
पाना भी चाहूँ तो
कैसे संभव है?
नहीं ना?
युगों की दूरी,
तय कर सका है,
कोई आज तक?
***
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